Tuesday, 10 January 2012

मैं  तो  कुछ  भी  नहीं  , कुछ  भी  नहीं  , कुछ  भी  नहीं  ,
और  तुम  हो  के  सर  आँखों पे  बिठाने  की  सोच लिए हो  !
वक्त  के  धारे  में  इक  महज़  लम्हा  भी  नहीं  मैं  ,
और  तुम  हो  के  बरसों  बरस  साथ  निभाने  चले  हो  !!

................................................................................
चंद  आँखों  को  मेरा  उठना  लगता  है  धुवां  ,
पर  आँखें  मलने  के  सिवा  कर  भी  वो  क्या  सकते  हैं  !!
आग  से  खेलना  उनको  कभी  आया  ही  नहीं  ,
और  मुझमे  है  जो  आग  ,कहीं  बाहर  से  नहीं  आई  है  वो  !
दिल  ज़िगर  भस्म  हुआ  तब  कहीं  शोला  भड़का  है  ,
अब  कहीं  हस्ती  मिटे  मेरी  तो  चैन  उनको  मिले  !
मेरी  आग  से  खतरा  है  उन्हें  बारूद  भरा  जिनके  दिल  में  ,
वर्ना  ये  तो  रौशन  करे  ,सदियों  से  बुझे बिन  तेल  के  चिरागों  को  भी !!

No comments:

Post a Comment