Friday, 20 January 2012


कश्तियाँ   ले   चलो   दूर   किनारों   से   चलो   ,
मैं   भी   देखूं    ,  साहिल   का   नज़ारा   समंदर   से  ,
बीच   समंदर   में   हिचकोले   खाते   हुए  ,
मौजों   को   गोदी   में   उठा   पटक   करालूँ   ज़रा  ,
और   देखूं  आकाश   में   परिंदों   की   परवाज़  ,
कैसे   मीलों   से   वो   मछली   पे   झपट   पड़ते   हैं  ,
कैसे   कश्ती   पानी   में   निशाँ   छोड़े   अपने  ,
यादों   की   तरह   मन   से   वक्त   के   साथ   बिसरने   को  ,
और   भाग्य   रेखा   की   तरह   ढूंढूं   सागर   की   हथेली   पे  ,
अनजान   भविष्य   की   खोज   में   ,  अनुवाद   लहरों   का   करूँ ,
सुनूं   मैं   भी   किसी   डोंगी   से   ,  मांझी   के   गाते   स्वर  ,
और   ,  महसूस   करूँ   ,  भूपेन   ,  सचिन   दा   की   धड़कन  ,
मैं   भी   निकलूँ   किसी   सिंदबाद   की   तरह   जाँ   हथेली   पे   लिए  ,
अपने   सारे   रिश्ते   नातों   से   , हमेशा   की   बिछुड़न   का   अहसास   लिए  ,
अंत   समय   की   तरह  ,मुझे   याद   आने   दो  सारे   करम  मेरे   ,
मैं   अब   अपना   ही   नज़ारा   करना   चाहता   हूँ   कहीं  दूर   खड़े  ,
मेरा   चेहरा   साहिल   की   तरह   ,  कैसा   दिखता   है   ,  देह   से   परे !!

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