कश्तियाँ ले चलो दूर किनारों से चलो ,
मैं भी देखूं , साहिल का नज़ारा समंदर से ,
बीच समंदर में हिचकोले खाते हुए ,
मौजों को गोदी में उठा पटक करालूँ ज़रा ,
और देखूं आकाश में परिंदों की परवाज़ ,
कैसे मीलों से वो मछली पे झपट पड़ते हैं ,
कैसे कश्ती पानी में निशाँ छोड़े अपने ,
यादों की तरह मन से वक्त के साथ बिसरने को ,
और भाग्य रेखा की तरह ढूंढूं सागर की हथेली पे ,
अनजान भविष्य की खोज में , अनुवाद लहरों का करूँ ,
सुनूं मैं भी किसी डोंगी से , मांझी के गाते स्वर ,
और , महसूस करूँ , भूपेन , सचिन दा की धड़कन ,
मैं भी निकलूँ किसी सिंदबाद की तरह जाँ हथेली पे लिए ,
अपने सारे रिश्ते नातों से , हमेशा की बिछुड़न का अहसास लिए ,
अंत समय की तरह ,मुझे याद आने दो सारे करम मेरे ,
मैं अब अपना ही नज़ारा करना चाहता हूँ कहीं दूर खड़े ,
मेरा चेहरा साहिल की तरह , कैसा दिखता है , देह से परे !!
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