क्यों न खोलूँ मैं गट्ठर आज ,
क्यों न गिराता चलूँ , आँचल में बंधे ,
आने , दो आने , चवन्नी , अठन्नी के सिक्के सभी ,
जो नए सरोकारों में अब खोटे हो गए हैं ,
बचपन गिरा , ताम्बे के छिदे सिक्के कि तरह , ठन से ,
मन को गहरी चोट लगी , डगमगा गया शव मेरा ,
छूटा माँ बाप का साया , दादा दादी का स्नेह छितरा गया ,
बिखर गया गिल्ली डंडे का सामान , नाना नानी का दुलार गया ,
अद्द्यापक भी भी दिखे डंडे समान , खुल गयी किताबें सारी ,
दूसरी गाँठ खोली तो , दुअन्नी गयी , जवानी की झंकार लिए ,
रास्तों के , कैंटीन के कहकहे , गलियों के फेरे ,
उछले , चौकोर , पांच पैसे की तरह , बेआवाज़ आज ,
छेड़खानी जो किये थे हम , बिखरी , खिलखिलाती चवन्नियों की तरह ,
एक गाँठ , और खुली ,
छूटा मिट्टी का घड़ा , खस की टट्टी छूटी ,
छूटी लकड़ी की तख्ती , कोयले की इस्त्री छूटी ,
बाण का मंज्जा छूटा , बांस का डंडा छूटा ,
छूटी मिट्टी की दीवारें छूटी , घास का छप्पर छूटा ,
प्रयत्न जो जीवनयापन को थे , छूटे ,
चलो अच्छा हुआ , खोटा रुपईया गया , ठंडा , थोड़ा शव और हुवा ,
अगली गाँठ से घर परिवार गया ,
रेजगारी की पहचान भी गयी ,
गिरते सामान की पहचान भी गयी ,
अब गांठें खुल रहीं हैं अपने आप , बिन आवाज़ ,
भाग्य भी गया , अभाग्य भी गया , गया बुढ़ापा भी साथ ,
पाप पुण्य सब छूटे , छूटा दर्शन भी मेरा ,
सब सिक्के बिखर गये , अपनों ने प्रदर्शन को संजोये सारे ,
और शेष रह गया सिर्फ और सिर्फ शव मेरा !!
क्यों न गिराता चलूँ , आँचल में बंधे ,
आने , दो आने , चवन्नी , अठन्नी के सिक्के सभी ,
जो नए सरोकारों में अब खोटे हो गए हैं ,
बचपन गिरा , ताम्बे के छिदे सिक्के कि तरह , ठन से ,
मन को गहरी चोट लगी , डगमगा गया शव मेरा ,
छूटा माँ बाप का साया , दादा दादी का स्नेह छितरा गया ,
बिखर गया गिल्ली डंडे का सामान , नाना नानी का दुलार गया ,
अद्द्यापक भी भी दिखे डंडे समान , खुल गयी किताबें सारी ,
दूसरी गाँठ खोली तो , दुअन्नी गयी , जवानी की झंकार लिए ,
रास्तों के , कैंटीन के कहकहे , गलियों के फेरे ,
उछले , चौकोर , पांच पैसे की तरह , बेआवाज़ आज ,
छेड़खानी जो किये थे हम , बिखरी , खिलखिलाती चवन्नियों की तरह ,
एक गाँठ , और खुली ,
छूटा मिट्टी का घड़ा , खस की टट्टी छूटी ,
छूटी लकड़ी की तख्ती , कोयले की इस्त्री छूटी ,
बाण का मंज्जा छूटा , बांस का डंडा छूटा ,
छूटी मिट्टी की दीवारें छूटी , घास का छप्पर छूटा ,
प्रयत्न जो जीवनयापन को थे , छूटे ,
चलो अच्छा हुआ , खोटा रुपईया गया , ठंडा , थोड़ा शव और हुवा ,
अगली गाँठ से घर परिवार गया ,
रेजगारी की पहचान भी गयी ,
गिरते सामान की पहचान भी गयी ,
अब गांठें खुल रहीं हैं अपने आप , बिन आवाज़ ,
भाग्य भी गया , अभाग्य भी गया , गया बुढ़ापा भी साथ ,
पाप पुण्य सब छूटे , छूटा दर्शन भी मेरा ,
सब सिक्के बिखर गये , अपनों ने प्रदर्शन को संजोये सारे ,
और शेष रह गया सिर्फ और सिर्फ शव मेरा !!
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