Tuesday, 24 January 2012

क्यों  न  खोलूँ मैं  गट्ठर  आज ,
क्यों  न  गिराता  चलूँ  ,  आँचल  में  बंधे  ,
आने  ,  दो  आने  ,  चवन्नी , अठन्नी  के  सिक्के  सभी ,
जो  नए  सरोकारों  में  अब  खोटे  हो  गए  हैं ,
बचपन  गिरा  ,  ताम्बे  के  छिदे  सिक्के  कि  तरह , ठन  से  ,
मन  को  गहरी  चोट  लगी , डगमगा  गया  शव  मेरा ,
छूटा  माँ  बाप  का  साया , दादा  दादी  का  स्नेह छितरा  गया ,
बिखर  गया  गिल्ली  डंडे  का  सामान , नाना  नानी  का  दुलार  गया ,
अद्द्यापक  भी भी  दिखे  डंडे  समान  ,  खुल  गयी  किताबें  सारी ,
दूसरी  गाँठ  खोली  तो  , दुअन्नी  गयी , जवानी  की  झंकार  लिए ,
रास्तों   के  ,  कैंटीन  के  कहकहे  ,  गलियों  के  फेरे  ,
उछले ,  चौकोर ,  पांच  पैसे  की  तरह ,  बेआवाज़  आज ,
छेड़खानी  जो  किये  थे  हम ,  बिखरी , खिलखिलाती  चवन्नियों  की  तरह ,
एक  गाँठ  ,  और  खुली  ,
छूटा  मिट्टी  का  घड़ा ,  खस  की  टट्टी  छूटी ,
छूटी  लकड़ी  की  तख्ती  ,  कोयले  की  इस्त्री  छूटी ,
बाण  का  मंज्जा  छूटा  , बांस  का  डंडा  छूटा ,
छूटी  मिट्टी  की  दीवारें  छूटी , घास  का  छप्पर  छूटा ,
प्रयत्न  जो  जीवनयापन  को  थे  ,  छूटे ,
चलो  अच्छा  हुआ ,  खोटा  रुपईया  गया , ठंडा , थोड़ा  शव  और  हुवा ,
अगली  गाँठ  से  घर  परिवार  गया  ,
रेजगारी  की  पहचान  भी  गयी ,
गिरते  सामान  की  पहचान  भी  गयी ,
अब  गांठें  खुल  रहीं  हैं  अपने  आप  ,  बिन  आवाज़ ,
भाग्य  भी  गया  ,  अभाग्य  भी  गया ,  गया  बुढ़ापा  भी  साथ ,
पाप  पुण्य  सब  छूटे  , छूटा  दर्शन  भी  मेरा ,
सब  सिक्के  बिखर  गये  ,  अपनों  ने  प्रदर्शन  को  संजोये  सारे ,
और  शेष  रह  गया  सिर्फ  और  सिर्फ  शव  मेरा !!

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