Saturday, 26 November 2011

सुना  है  तेरे  गालों  की  लाली  उतार  दी  तैनें ,
चलो  अच्छा  हुआ , वक्त  का  सच  वक्त रहते ,  मान  लिया !
मेरे  भी  काले  बालों  का  सच  उजागर  हुआ  ज़मानें  में ,
पर  मैं  चूक  गया  , कालिख  के  प्रभाव  से  गंजा  हुआ  ,  जान  लिया  !!



गिरगिटों के  नित  बदलते  रंगों  ने  ,  मेरा मन  कुछ  उदास  किया  ,
आता  अगर  ये  फन  मुझको  भी  ,  मैं  भी  गर्दन  झटक  रहा  होता  !! 



 
मेरा  मन  ये  बैरी  मन , सोचता  है  कभी , ये  शाम  ही  रंगीन  क्यों  होती  , 
बदनाम  रात  ही  क्यों  होती ,  क्या  दिन  के  उजाले  में  वो  सब नहीं  होता !!





  पगडंडियाँ  हैरान  हैं ,  करती  हैं  सवाल , क्यों  मचाते  हो  बवाल  जब ,  ऊपर  ले  जाती  मैं  ?
चोटी   पे  पहुँच ,  मज़ा  लेते  जब  ,  देखते  दुनिया  के  नज़ारे  हो ,  क्यों  अच्छा  लगता  है  न ?
फिर  चार  बूँद  पसीने  की  मेरी , जो  मेरी  ही  कमाई  है  ,  क्यों  देने  से  कतरा  जाते  हो  ,  है  न ?
दौड़ते  जब  उतराई  में  ,  प्रयत्न   बिना  ,  हँसते  मुस्कुराते  ,  वो  तो  ईनाम  भी  देती  हूँ  न  ?
फिर  क्यों  भला  कोसते  हो  चढ़ाई  को , हर  कदम चढ़ते  हुए  देते  हो  गाली  ,  क्यों  है  न  ?  
भले मानुस  प्रयत्न   तो  अवश्य  ही  कुछ  करना  होगा ,  बिना  प्रयत्न तो  बस  मरना  होगा !! 



हमें  यूँ  न  जाईये  दरस  दिखला  के ,  सदियों  से  इंतज़ार  में  था सपना  मेरा 

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