Monday, 28 November 2011

देख तो  आया  हूँ  समुन्दर  में  गहरा  पानी , पर  मन  है  डूब  ही  जाऊं ,
शायद  उथला  है  संचेतन  मन ,  गहराई  मांगे  जीवन  से , बंधने के  लिए ,
उड़ना  चाहूँ  पर  पंख  कटे ,  कश्ती  में  पतवार  नहीं ,  चेतन  में विचार  नहीं ,
जो  भी  हाथ  में  शस्त्र चढ़ा ,अनाड़ीपन  में ध्वस्त रहा ,कुंद  रही उसकी धार कहीं ,
ऐसे  में  लड़ना  क्या  और  तरना  क्या और बंधना ,अधचेतन का  संचेतन से क्या ,
हार  गया  मैं  मन  से  भी  और  तन  से  भी , पर कुछ  है  अंतर  में जो लड़ता  है ,
गिरता  है  पर  फिर  उठता  है , फिर  उठता  है  दृढ़ता  से और  चेतनता  है , 
नाम  भला  क्या  दूं  उसको ? इच्छाशक्ति ?  भगवान् मेरा ? ईश खुदा ?  या  पैगम्बर ?
इससे  पड़ेगा अंतर क्या ? फिर  झगडा क्या और  क्यों होता  है ? 
समझ  में  आये  तो  बतलाना , सांझ  ढले  घर  आऊँगा ,  सागर  में  तर  जाऊंगा !!

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