Tuesday, 22 November 2011

हमीं  को  चाहिए  हमसे  तसल्लियाँ , ऐतबार  जो  टूटा हर  बार  ,
खुद  से  वादे  किये ,  खुद  तोड़े  ,  रोये  खुद  जार  जार  ,  बार  बार  !!



  
सुधरती  नहीं  आदत  मेरी , क्यों  करे  कोई  ऐतबार ,
दिखता  है  उनको  भी  , हूँ   मैं  कितना  एक शर्मशार  !! 





गुज़र  भी  जाईये  क्यों  खड़े  ,  ठिठके  हुए  राहों  में ,
मेरा  सामना  तो  कई  बार  हुआ  है  अनजानों  से  !
जानने  ,  पहचानने  , और  वरने का  वादा  कर ,
दे  गए  दाग  मेरे  सीने  पर  ,  टैटू  से , हमेशा  के  लिए  !
मेरा  तन  और  मन  अब  भर  गया  है  ,  शेष  नहीं  कुछ ,
यूँ  झूठी  तसल्ली  बन , राह  ना  रोको ,  हटो  जाने  दो   !!  



जान  कर  भी  अनजान  बनूँ   ,  देखिये  मेरी  नादानियों  का  अंदाज़  है  क्या !!


कबाड़ियों  के  महल्ले  की  रौनक  देखिये  ,
सब  नए  सामान  मिलेंगे  ,  तेरे  मेरे  घर  के ,
और  चौकीदार  बना  बैठा  है  वर्दीवाला  !!



तेरी  भी  क्या  जान  पहचान  हुई , भूख  से  साजन  मेरे  ?
समाज के  सब  असूल  ,  फ़ानी  थे ,टूट  गए  धीरे  धीरे   !!



दोष  मैं  देता  रहा  सदा  उनको  ,  जो  दोषी  न  थे  ,
और   इनाम  दिए  उनको  ,  जो  मेरे  जयकारी  थे  !!



जंगल  में  जाने  क्यों  चुनता  रहा  मैं  बुरांश  के  फूल  ,
और  फूल  थे  बचपन  के  जो , गली  बाज़ारों  में  ,  सब  सूख  गए  !!





जितने  थे  ज़रूरतमंद  शहर  में  मेरे  ,
सब  चोर  बना  ,  सेठ  बनाये  ,  कबाड़ियों  ने  !!


 


  
 
  

   

   

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