Sunday, 27 November 2011

बरगद  तले  रात  गुजारूं  कोई ,  रात  को  चाँद  निहारूं ,  और  साथ  हो  तुम ,
फड़फड़ाये  परिंदा  , उड़  बैठे  नयी  दाल  पे  और  तुम  डर  के मेरे  करीब  आओ  ज़रा ,
देखूं  डर की  रेखाएं  चेहरे  पर तेरे ,  उभर  आई  पसीने  की  बूँदें  माथे  पर  देखूं ,
और  इक  ढाढस   की  आस  लिए , एक  नज़र खाली  सी  देखूं , सर  पे  हाथ फिराऊँ ,
प्यार  भरा ,  बिन  बोले  समझाऊँ ,  कुछ नहीं  हुआ  बस परिंदा  था ,  अब  शांत  हुआ ,
आश्वस्त  हो  जाती  तुम  और  सर  रखती  कंधे  पर  और  फिर  खो जाते  चाँद में ,
रात  तो  लम्बी  होती  ,  पर  बातें  करती  उसकी  लम्बाई  को  ख़तम  ,  और  ,
भोर  भये  लगता ,  क्यों  रात  कटी , क्यों  डूबा  चाँद ,  क्यों  पंछी  बोले ,  और ,
क्यों  मैं  न  बोला  ,  क्यों  तुम  न  बोली  ,  क्यों  ख़ामोशी  ही  बनी  बातों  का माध्यम ,
और  क्यों ,  पसरता  जीवन  में  मेरे  ,  पर  यथार्थ  में तुम  न  आई  और  मैं चाँद भोगता  रहा !! 

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