बरगद तले रात गुजारूं कोई , रात को चाँद निहारूं , और साथ हो तुम ,
फड़फड़ाये परिंदा , उड़ बैठे नयी दाल पे और तुम डर के मेरे करीब आओ ज़रा ,
देखूं डर की रेखाएं चेहरे पर तेरे , उभर आई पसीने की बूँदें माथे पर देखूं ,
और इक ढाढस की आस लिए , एक नज़र खाली सी देखूं , सर पे हाथ फिराऊँ ,
प्यार भरा , बिन बोले समझाऊँ , कुछ नहीं हुआ बस परिंदा था , अब शांत हुआ ,
आश्वस्त हो जाती तुम और सर रखती कंधे पर और फिर खो जाते चाँद में ,
रात तो लम्बी होती , पर बातें करती उसकी लम्बाई को ख़तम , और ,
भोर भये लगता , क्यों रात कटी , क्यों डूबा चाँद , क्यों पंछी बोले , और ,
क्यों मैं न बोला , क्यों तुम न बोली , क्यों ख़ामोशी ही बनी बातों का माध्यम ,
और क्यों , पसरता जीवन में मेरे , पर यथार्थ में तुम न आई और मैं चाँद भोगता रहा !!
फड़फड़ाये परिंदा , उड़ बैठे नयी दाल पे और तुम डर के मेरे करीब आओ ज़रा ,
देखूं डर की रेखाएं चेहरे पर तेरे , उभर आई पसीने की बूँदें माथे पर देखूं ,
और इक ढाढस की आस लिए , एक नज़र खाली सी देखूं , सर पे हाथ फिराऊँ ,
प्यार भरा , बिन बोले समझाऊँ , कुछ नहीं हुआ बस परिंदा था , अब शांत हुआ ,
आश्वस्त हो जाती तुम और सर रखती कंधे पर और फिर खो जाते चाँद में ,
रात तो लम्बी होती , पर बातें करती उसकी लम्बाई को ख़तम , और ,
भोर भये लगता , क्यों रात कटी , क्यों डूबा चाँद , क्यों पंछी बोले , और ,
क्यों मैं न बोला , क्यों तुम न बोली , क्यों ख़ामोशी ही बनी बातों का माध्यम ,
और क्यों , पसरता जीवन में मेरे , पर यथार्थ में तुम न आई और मैं चाँद भोगता रहा !!
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