जय पलासणियां
Saturday, 19 November 2011
याद नहीं भूले से भी , दिल किसीका दुखाया हो !
हाँ सच तो मैं बोला था , क्या ये भी गुनाह है ?
मैं समझा , बोलना है अच्छा ,
पर चुप ही काफी थी !
तेरे भाव को , देखे कौन ?
और मतलब को , समझे कौन ?
देते हैं शब्दों को ,
सब अर्थ हैं अपने !!
ज़माने की तोहमतों का मज़ा लीजिये , खाली पैमानों का तज़ा लीजिये !
सूखे हलक में पानी भी लगता है , आये जो आंसू तो गटक लीजिये !!
दरवाज़े भी बंद और खिड़कियाँ भी बंद , मैं समझा हवाएं , यूँ ही हैं परेशान !
ज़िगर भी बंद और दिल के रस्ते भी बंद , मैं समझा मोहतरमा , यूँ ही है परेशान !!
हे बंसी बजयिया ,हे कृष्ण कन्हईया , ये रास जो तुम खेले हो , क्या ये खेल तुम्हारा ही ?
जितनी हैं सखियाँ , क्या तुम्हरी ही ? तब ग्वाले क्यों संग , ले के चला तू ?
माखन मिश्री में बहलाया उनको , फिर भी है सबका मनमोहन तू ?
हे बंसी बजयिया ,हे कृष्ण कन्हईया ,ये रास जो तुम खेले हो ,क्या खेल तुम्हारा ही ?
मुझको मरा मान बैठी ये दुनियाँ , और मैं हूँ के , फिर फिर ज़िन्दा हो जाता हूँ !!
कपड़े पहने इंसानों ने पर जानवर जयादा हैं , और नंगे घूमते जानवर , पर इंसान जयादा हैं !!
आग से आग मत सींचो , जल्दी स्वाहा हो जायेगी ,
कुछ जतन करो , संरक्षण का , कुछ और देर चल जायेगी !!
मैं चला हूँ जीवन से खेलने , थोड़ी धूप दो , थोड़ी छांव दो !
मेरा यकीन करलो , मेरे हमसफ़र , थोड़ी आग दो थोडा पानी दो !
मेरा मैदान है धुवां धुवां , नज़र इसमें आये , कुछ भी न !
थोडा संग दो थोड़ा साथ दो ,मैं खेल आऊँ दो घड़ी !
थोड़ा रंग दो थोड़ा फाग दो , रहो साथ मेरे तुम खड़ी !
मेरे साथ हैं मेरे हमनफ़स , दो गम और आंसू चार हैं !
जो ख़ुशी के पल हैं कहार हैं ,मुझे मंजिल से बतियाने दो !!
मैं चला हूँ जीवन से खेलने थोड़ी धूप दो , थोड़ी छांव दो !!
खासे नाराज़ हैं वो , और जताते भी हैं !
घर के बाहर से , सूरत दिखा , बिन बोले चले जाते हैं !!
नाराज़गी का इक इशारा और भी है ,
जब भी मिलते हैं , हल्के से बस छू के निकल जाते हैं !!
जानता हूँ के उनसे उम्मीद है फ़िज़ूल ,
दिल है के नाहक ही , जिंदा रहने की क़सम खाए है !!
शामिल है उसकी निगाहों में , मेरा असर , जो भी दिखता है ,दिखता है मेरी मानिंद !!
क्या कोई दोस्त ज़रूरी है दुनियाँ में ?
क्या जिंदगी यूँ ही गुज़र न होगी ?
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