मेरे बिखरे हुए जीवन का कोई सिरा तो मिले ,
समेटूं किस तरह डोर , समझ आता नहीं !
सब उलझे हुए पल हैं , कुच्छ जिए ऐसे ,
गांठें ही गांठें हैं , सिरे नदारद जीवन के !
बुनकर है जो जीवन का बैठा है उदास ,
सुलझाने को हाथों में नश्तर केवल है पास !
अब इक ही सहारा है , सुलझाए जो नसीबों को ,
हार के जीवन को , दूं उसको अब , उलझी हुई डोर !!
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