कभी मैं पूछता हूँ स्वयं से ,
क्यों मैं चाहूं ,
बस इक बार ,
बस इक बार मैं जानूं सत्य सारा ,
मैं कौन ?
वो कौन ?
आया कहाँ से ?
जाना कहाँ ?
क्या आना जाना सदा का ?
या ठहराव भी है कुछ ?
कभी आएगा इस चक्र का कोई अंत ?
पर कौन है जो सुन रहा ?
कौन है जो दे उत्तर ?
फिर यूँ ही ,
प्रश्न निरर्थक ,
क्यों करे जाता हूँ मैं ,
क्यों मैं उलझ रहा इस झंझावात में ?
क्या किसी को मिला उत्तर ?
पर क्या रह सकता हूँ इस प्रश्न से अलग मैं ?
ये वो प्रश्न है जिसे ,
बूझे ज़माना ,
ये जानते भी कि ,
प्रत्यक्ष मैं स्वयं से भी नहीं ,
तो कैसे जान लूँगा ,
उस रचयिता को जिसका आकार अनंत ?
कभी सोचता हूँ ,
अच्छा है उलझा रहूँ मैं ,
इसी प्रश्न के सम्मोहन में ,
बचा तो रहूँगा किसी उत्पात से मैं ,
कभी मैं सोचता हूँ ,
क्या मुझे नहीं विश्वास श्री कृष्ण पर क्या ?
पर अचानक ,
बंधन सारे खोल देता हूँ किश्तियों के ,
न भय कोई , न जिज्ञासा ,
न प्रश्न बचते शेष कहीं भी ,
बस एक शांती , एक समर्पण ,
महसूस करता हूँ एक से एक होना ,
बस शेष अब कुछ नहीं , एक मौन केवल मौन !!
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