Monday, 6 February 2012


कभी   मैं   पूछता   हूँ    स्वयं   से  ,
क्यों   मैं   चाहूं   ,
बस   इक   बार  ,
बस   इक   बार   मैं   जानूं   सत्य   सारा   ,
मैं   कौन   ?
वो   कौन   ?
आया   कहाँ   से   ?
जाना   कहाँ  ?
क्या   आना   जाना   सदा   का   ?
या   ठहराव   भी   है   कुछ  ?
कभी   आएगा   इस   चक्र   का   कोई   अंत   ?
पर   कौन   है   जो   सुन   रहा   ?
कौन   है   जो   दे   उत्तर   ?
फिर   यूँ   ही   ,
प्रश्न   निरर्थक   ,
क्यों   करे   जाता   हूँ   मैं   ,
क्यों   मैं   उलझ   रहा   इस   झंझावात  में   ?
क्या   किसी   को   मिला   उत्तर   ?
पर   क्या   रह   सकता   हूँ   इस   प्रश्न   से   अलग   मैं   ?
ये   वो   प्रश्न   है   जिसे   ,
बूझे   ज़माना   ,
ये   जानते   भी   कि   , 
प्रत्यक्ष   मैं   स्वयं   से   भी   नहीं   ,
तो   कैसे   जान   लूँगा   ,
उस   रचयिता   को   जिसका   आकार   अनंत   ?
कभी   सोचता   हूँ   ,
अच्छा   है   उलझा   रहूँ   मैं   ,
इसी   प्रश्न   के   सम्मोहन   में   ,
बचा   तो   रहूँगा   किसी   उत्पात   से   मैं  ,
कभी   मैं   सोचता   हूँ   ,
क्या   मुझे   नहीं   विश्वास  श्री   कृष्ण   पर   क्या   ?
पर   अचानक   ,
बंधन   सारे   खोल   देता   हूँ   किश्तियों   के   ,
न   भय   कोई   ,  न   जिज्ञासा   ,
न   प्रश्न   बचते   शेष   कहीं   भी   ,
बस   एक   शांती   ,  एक   समर्पण   , 
महसूस   करता   हूँ   एक   से   एक   होना   ,
बस  शेष   अब   कुछ   नहीं   ,  एक   मौन   केवल   मौन   !!

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