Sunday, 5 February 2012

वो  तिलिस्सम जो  नज़र  आता  है  तेरी  आँखों में ,
कहीं  ख्वाब  सा  महज़  एक  दिलासा  तो  नहीं ?
मेरी  मंजिल  कभी  आसाँ  न  रही, इसलिए डरता हूँ ,
आसमाँ से  उतर  आने  में  तक़लीफ़  मुसल्सल होगी !
जो  है , शीशे  की  तरह  दिखादे  मुझे  मुकद्दर  मेरा ,
मुझे कभी भूले  से  भी चाँद  लपकने  की आदत  न  रही !
मैं  जंगल  में  भी  रहा  बनफशा  बन , सूरज  से  दूर ,
देवदार  की  तरह  आकाश  को  छूने  की  तमन्ना  न  रही !
तुझपे  कोई  इलज़ाम  ना  तारी  होगा  मेरे  हमसफ़र ,
तू  किसी  ज़ोर पे  हामी  भर दे ,  ये  ना  चाहूँगा  मैं  कभी !!    

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