वो तिलिस्सम जो नज़र आता है तेरी आँखों में ,
कहीं ख्वाब सा महज़ एक दिलासा तो नहीं ?
मेरी मंजिल कभी आसाँ न रही, इसलिए डरता हूँ ,
आसमाँ से उतर आने में तक़लीफ़ मुसल्सल होगी !
जो है , शीशे की तरह दिखादे मुझे मुकद्दर मेरा ,
मुझे कभी भूले से भी चाँद लपकने की आदत न रही !
मैं जंगल में भी रहा बनफशा बन , सूरज से दूर ,
देवदार की तरह आकाश को छूने की तमन्ना न रही !
तुझपे कोई इलज़ाम ना तारी होगा मेरे हमसफ़र ,
तू किसी ज़ोर पे हामी भर दे , ये ना चाहूँगा मैं कभी !!
कहीं ख्वाब सा महज़ एक दिलासा तो नहीं ?
मेरी मंजिल कभी आसाँ न रही, इसलिए डरता हूँ ,
आसमाँ से उतर आने में तक़लीफ़ मुसल्सल होगी !
जो है , शीशे की तरह दिखादे मुझे मुकद्दर मेरा ,
मुझे कभी भूले से भी चाँद लपकने की आदत न रही !
मैं जंगल में भी रहा बनफशा बन , सूरज से दूर ,
देवदार की तरह आकाश को छूने की तमन्ना न रही !
तुझपे कोई इलज़ाम ना तारी होगा मेरे हमसफ़र ,
तू किसी ज़ोर पे हामी भर दे , ये ना चाहूँगा मैं कभी !!
No comments:
Post a Comment