Monday, 13 February 2012

कट  जाता  हूँ  कभी  कागज़  से  भी  , 
कभी  तलवारें  भी  गर्दन  पे  मेरी  , बे  असर  साबित  हुयीं !!
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उजाला  पर्वत  पे  देखा , ऊषा  का  भ्रम  हो  गया  , 
क्या  था  इंगित  मन  को  मेरे  , अँधा  यूँ  हो  जाऊंगा  ?
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अपने  ही  ख्याल  में  डूबा  रहा  मैं  , 
और  वक्त  का  आना  जाना  ना  हुवा  !!
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भारी  भरकम  शब्दों  में  , वो  खुद  दबे  और  दबी  पंडिताई  उनकी  , 
और  मैं  गाँव  का  निपट  गंवार  , लोक गीत  बन  छा  गया  !!
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है  मालूम  मुझे  मेरी  सीमाओं  का  विस्तार  , 
इसलिए  कोल्हू  में  भी  निकालूँ  , अनवरत  तेल धार  !!
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कद्रदान  बन  के  मिले  जब  भी  तुम  , 
जुनूने  इश्क  में  मैं  , बड़बड़ाता  ही  रहा  बस  !!

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