कट जाता हूँ कभी कागज़ से भी ,
कभी तलवारें भी गर्दन पे मेरी , बे असर साबित हुयीं !!
...........
उजाला पर्वत पे देखा , ऊषा का भ्रम हो गया ,
क्या था इंगित मन को मेरे , अँधा यूँ हो जाऊंगा ?
............
अपने ही ख्याल में डूबा रहा मैं ,
और वक्त का आना जाना ना हुवा !!
.............
भारी भरकम शब्दों में , वो खुद दबे और दबी पंडिताई उनकी ,
और मैं गाँव का निपट गंवार , लोक गीत बन छा गया !!
..............
है मालूम मुझे मेरी सीमाओं का विस्तार ,
इसलिए कोल्हू में भी निकालूँ , अनवरत तेल धार !!
...............
कद्रदान बन के मिले जब भी तुम ,
जुनूने इश्क में मैं , बड़बड़ाता ही रहा बस !!
कभी तलवारें भी गर्दन पे मेरी , बे असर साबित हुयीं !!
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उजाला पर्वत पे देखा , ऊषा का भ्रम हो गया ,
क्या था इंगित मन को मेरे , अँधा यूँ हो जाऊंगा ?
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अपने ही ख्याल में डूबा रहा मैं ,
और वक्त का आना जाना ना हुवा !!
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भारी भरकम शब्दों में , वो खुद दबे और दबी पंडिताई उनकी ,
और मैं गाँव का निपट गंवार , लोक गीत बन छा गया !!
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है मालूम मुझे मेरी सीमाओं का विस्तार ,
इसलिए कोल्हू में भी निकालूँ , अनवरत तेल धार !!
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कद्रदान बन के मिले जब भी तुम ,
जुनूने इश्क में मैं , बड़बड़ाता ही रहा बस !!
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