Thursday, 2 February 2012

समझ लो  तुम  कहानियां  मैं  गढ़ा  करता  नहीं  ,
पर  जीवन  जो , संवेदना   से  हैं  परे  , पढ़ा  करता  नहीं ,
यहाँ  सब  लगे  हुए  हैं ,  अपने  अपने  सत्य  के  पीछे ,
पर  जीवन  तो  जीना  है  ,  इसी  पल  में  ,  समझौता  ,  हो  ही  जाता  है ,
नहीं  कहता  तुम  गंगाजल  बनों  ,  पर  कीचड़  भी  तो  बनना  सही  है  क्या ?
तुम  कीचड़  में  फँस  भी  जाते  हो  तो  ,
कमल  बन  के  निकल  आओ  तो  ,  बेहतर  है  ,
यहाँ  सब  हैं  कांच  के  घर  में ,  पत्थर  कौन  मारेगा  ?
पर  जाना  तो  सबको  है  इक  दिन भगवान्  के  घर  में  ,
न  दो  भिक्षा  तुम  ,  पर  अलख  तो  जगाने  दो  ,
न  जाने  किस  घड़ी  ,  मेरा  जीवन , सुधर  जाए  वाल्मिक  सा  !! 

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हलाहल  पी  तो  लूँगा  गटागट  मैं ,
पर  शिव  तो  हूँ  नहीं  बन  जाऊंगा  नीलकंठ पल  में  मैं ,
मुझे  हल्के  हल्के  से  सत्य  के  पास  आने  दो ,
निचुड़नें  दो  विष  को मुझसे , पीते  पीते ,  छलनी  की  तरह ,
हो  सकता  है  कुछ  विष  निर्विश  बन  निकल  जाए  ,
धरा  का  कुछ  कल्याण  हो  जाए  ,  मुझमें  गुण  आधान  हो  जाए ,
सुना  है  सब्र  का  फल  मीठा  ,  कुछ  धीरज  धरो  तुम  ,
तुम  भी  मेरे  साथ  फल  खाना , जब  थोड़ा  ज्ञान  हो  जाए !! 

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 उद्वेग  में  ज़माना  है  ,  पिछड़  जाएँ  न  कुछ  पल  हम ,
और  इसी  चिता  में  जल  जल  ,  पल  सारे  जला  डाले  !
बचपन  सब  जला  डाले  ,  जवानी  सब  मिटा  डाली  ,
बचा  कुछ  शेष  चिंता  की  चिता  से  , तो  राख  बस  ख़ाली  !!

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