चलो जिंदगी का कबाड़ बेच आऊँ आज ,
बहुत दिन हुए घर के , भण्डार , में घुसे हुए ,
धूल भी है बहुत , जाले मकड़ी के ,
पाँव धरने को भी जगह ना बची कुछ ,
कुछ तो फेंकना होगा ,
नया बेकार सामान रखने को !
सबसे पहले तो किताबें रद्दी हैं ,
छेड़ता हूँ उनको मैं ,
हिसाब बरकत राम का ,
अपने ज़माने की सबसे अच्छी किताब ,
हिसाब की ,
अब सिलेबस से बाहर हुयी ,
व्यवहार गणित अब व्यवहार में नहीं आता ,
ठीक है बेच दो अब !
दादाजी की डायरी ,
चीफ वैक्सिनेटिंग स्टाफ पंजाब ,
1919 , वार्ड वार 2 ,
दज़ला फ़रात , कुछ संस्मरण ,
कुछ फार्मूले , आम रोगों की दवाओं के ,
बेकार अब ,
ठीक है , फेंको अब ,
दादाजी की आत्मकथा ,
कितना पढ़े ,
कैसे पहुंचे पैदल लाहौर ,
कैसे बारह वर्ष के हिन्दू बच्चे को ,
उसका बिगाड़ते हुए ना धर्मं ,
एक मुसलमान ने जीवन के कैसे दिए गुर ,
कैसे वो मुस्लिम बूढ़ा ,
बैठ दरवाज़े पे देता निर्देश ,
बेटा , चूल्हे पे पानी धर ,
निकल जाओ जंगल पानी को ,
आते ही पानी गर्म होगा , नहा लेना ,
खाना तक बनाना , दरवाज़े के बाहर बैठ ,
सिखाया सब ,
ताकि ब्राह्मन बच्चे का धर्म बर्बाद ना हो ,
दिल छलक आया ,
बड़े दर्द से कहानी को कबाड़ बनाया ,
पिताजी की कुच्छ पुरानी किताबें ,
तीर्थ यात्राओं के संस्मरण ,
और भी बहुत सी अनछुई , अनपढ़ी किताबें ,
सब कबाड़ , फेंको भाई !
दादाजी का लाहौर से लाया ,
शीशम का फर्नीचर ,
अब तक दीमक से सुरक्षित ,
पर पुराना ,
घर के लोगों की आँखों को खटकता ,
ठीक है तुम खुश तो मैं खुश ,
फेंको ,
दादाजी का हुक्का कांसे का ,
जिसको कोई हाथ तक नहीं लगा सकता था , इक दिन ,
और इसके साथ जुड़ी यादें , सब फेंको सब बेकार हैं अब ,
जिगर कट गया मेरा ,
पर कबाड़ को घर में जगह नहीं अब ,
घर में बहू बेटों का सामान भी ज़रूरी है अब ,
फेंको सब यादें भी फ़ेंक दो ,
जो जुड़ी हुई हैं जीवन से मेरे , उफ़ भी ना करूंगा मैं ,
पर मुझे जाने दो ,
और मुझसे पूछना भी मत ,
टूट जाऊंगा , इजाज़त है तुम्हें ,
चलो जिंदगी का कबाड़ बेच दो सब ,
बुजुर्गों की , सब तस्वीरों और , यादों के साथ !!