Tuesday, 9 April 2013

कांच  का मन ,
रे ,  बचपन ,
मैं  देखूं , सीधे  पार ,
माँ ,  दिखती  केवल  माँ ,
भाई  बंद , अरे , हाँ ,हाँ  ,हाँ ,
सब  है साफ़ ,
न  धब्बा दाग़ ,
यही तो  है , जिसे रखते  सब ,
सहेज  सहेज ,
जिसकी  विवेचना से ,
अब  है परहेज ,
क्योंकि अब हम बच्चे नहीं ,
इंसान तो  हैं ,  पर  सच्चे नहीं !!

 

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