Sunday, 28 April 2013

हम  ढूँढते  रहे  ख़ुद  को  ,  ज़माने  की  आँख  में ,
और  मिले  तो  आखिर , यार  की , आँखों  में  चुभे  हुए !
क्या  हुए  जो  हम  ,  यार  की  हिफाज़त  में  रहे तैनात ,
यार  को  समझ  आया ,  हम , किसी  खुराफात , में  लगे  हुए !!
अपनी  तो  उन  आँखों  से ,
बन  आई  है  ,
जिन  में  नित  नई  शरारत ,
और  कोरों  में  कन्हाई  है !!

Saturday, 27 April 2013

तेरी  बेपरवाहियाँ  कब  ज़ुल्म  हो  गयीं ,  न  मालूम ,
ये  तन्हाईयाँ  कब  , दिल , पार  हो  गयीं  , न मालूम ,
ये  शहनाईयां कब , ख़ार  हो  गयीं  , न  मालूम ,
अब  सब्र  से हैं ,  हम  कब्र में  हैं ,   बस है  मालूम !!
 

Friday, 26 April 2013

बींध  रहा  मन  का  मणका ,
और  घूम  रही  विचार  धुरी ,
मनका मणका ,  चीख रहा ,
क्यों घूम  रही , क्यों  घूम रही ,
जल धन  रे  गया ,
जल  यश  रे  गया ,
जल  काम  गया ,
कुछ  बस  न  रहा ,
हाय ! छोड़  मुझे ,
ये  जग  भी  गया ,
मुझे  न  जाना  रे , पास पिया ,
रम  गया मन  , इस  हास पिया ,
सुन  री धुरी  ,  अरे  सुन  री  धुरी ,
किस  धुन में  तू , घूम  रही ?
रे मन  ,  मैं  तो  बस हूँ ,पास  खड़ी ,
जो  घूम  रही , है विवेक  लड़ी ,
संग में  अपने , तुझे घुमा रही ,
तेरे  अंतर को  है , जगा  रही ,
त्याग  रे  मोह  तू , इस  तन  का ,
बिंध  जाने  दे  मन  का   मणका !!




 
पृथक   कर  देखो  कभी  ,
सत्य  को  असत्य  से ,
विष  को  अमृत  से ,
देव  को  राक्षस  से ,
पृथ्वी  को  आकाश  से ,
नर  को  नारी  से ,
जीवन  को  मृत्यु से ,
संभव  को  असम्भव से ,
आवश्यक  को  अनावश्यक  से ,
हाँ  को  नहीं  से ,
और  जोड़ते  जाओ  ,  इस  कड़ी  में ,
जो  भी स्मृति  में  आता  है ,
दिखेगा  , बस  एक  ,
जिसमें  सब  समाता  है ,
और  एक  हम  हैं ,  जिन्हें ,
सब  भिन्न नज़र  आता  है !!
मौन  रहो  कुछ  देर  तलक ,
पवन को  कहने  दे , फ़लक़ ,
बहते  बहते , पेड़ों से ,  खिलवाड़ इसे  तू   करने दे ,
कुछ  पत्ते  गिरते  हैं   मृत से ,तो ,
झरने  दे , तू  गिरने दे ,
ये  साएँ  साएँ ,
पत्ते ये  हिलते , दायें  बाएं ,
शाखा  का  मोह  ये  ताक  रहे ,
जड़  से  सम्बन्ध  ,  ये  माप  रहे ,
भूल  रहे  हैं ,  धूप   में  जलना ,
ठंडी  रातों  में ,  बर्फ  का  सहना  ,
भोजन कितना  ये  पका  गये ,
पानी  कितना  उड़ा  गये ,
अब  तो  बस  ये  खेल  रहे ,
पवन  से  इनको  बतियाने  दे ,
झूम  के  इनको  गाने  दे ,
कुछ  देर  ठहर , मत  जगा  इन्हें ,
सुन्दर सपनों  में ,  जानें  दे ,
मौन  रहो  कुछ  देर  तलक ,
पवन  को  कहने  दे  ,  फ़लक़ !!

सोच  में  डूबे  रहे ,  रेत  पर  लिखते रहे ,
पर  टिके  न , वक्त की  स्याही  के  रंग ,
इस  रेत को  पत्थर  बनाना  ,
स्याही  को  पक्का  बनाना , आसाँ  नहीं  है ,
सदियों  की  मेहनत ,  अच्छी  किस्मत ,
और  मेहरबानी  ख़ुदा की  ,  चाहिए  संग !!
कौन  के  गलबाहें  डालूँ  ?
कौन  के  डालूँ  गल  हार ?
यहाँ  सब  परछाईयाँ  हैं  ,
कोई  के , न ,  बरसे  मल्हार !!
मंज्ज़र  और  भी  थे  ज़मानें  में  ,
पर  तेरे  अश्कों   का  मंज्ज़र ? आह !
मज़ा  कुछ  और , आता  सताने  में ,
पर  तेरे  नज़रों  के  खंज्जर ?  आह !


गिरती  बूँदें  भी  हँसती  हैं ,....
जीवन  नया , हम  देंगीं  कल ,....
गिरना  भी  हमारा  है ,....
ज़माने  भर  का  लहलहाता  पल !.....

Friday, 12 April 2013

हर  वर्ष  उम्र  के  साथ ,  इक  नई  खाल  चढ़ती गयी ,
कोई  इक  एहसास  मरता  गया , सच से  दूरी बढती  गयी ,
जागता  है  कोई  भाव तो  अब  , शक से ' साही '  बन  जाते  हैं ,
अभ्यागत  को  बिना  परीक्षा , घर  से  हम  दौड़ाते  हैं !!
सृजन  हो  रहा , काँधे , विसर्जन  के ,
और  हम  खड़े घूर  रहे  अभ्यागत मौत ,
जीवन  मृत्यु  ,  दोनों   बहनों  को ,
समझ  रहे  ,  इक  दूजे  सम ,  सौत  ,
जान  रहे  फिर  अज्ञानी  , चाह  रहे  , उनका विछोह ,
भोजन  चाहते   मनभावन , पर  चाहते , बिन  शौच ,
दूर  खड़ा  वो  राम  हमारा  ,  देख के  हैरान , ये  सब मोह ,
बिना  विसर्जन ,  बचती  अब  तक , क्या धरा पर  इक भी खोह ?



देख  रहा  उदय  ,  सूर्य   का  दिवस  प्रणय ,
शायद  दोपहरी  तक  न  होंगे  हम  ,
शेष  बच  रहोगे  तुम ,
देखना  ये  सफ़र  जारी  रहे ,
सूर्य  का  दिन  बच  रहे  ,
और  कामयाब  ,  होओगे तुम ,
देख  रहा  उदय  ,  सूर्य  का  दिवस  प्रणय !!
मुस्कुराओ , मेरे  यार  मुस्कुराओ ,
अब  बाद  मौत  के  भी  ,
चांस  , है  तेरे  जी  जाने  का ,
किसी  और  का  भी  दिल  दुखाने  का  ,
अब  जब तक  मैं  ,
पूरण  रूपेण  सड़   नहीं  जाता ,
रिपेयर  कर  दिया  जाता  रहूँगा ,
मेरा  दिमाग  ,  जो  गलता  जाएगा ,
ब्रेन  चिप  से  ,  बदलता  जाएगा ,
मेरा  दिल  , जो  ,  भरा  हुआ  है ,
कभी  तेरे   बदन  में  ,  सच  में  ,  धड़क  जाएगा ,
तुझे  रुलाएगा  ,  मुझे  हंसायेगा ,
गिन  गिन  के , तेरे  सताने  के  ढंग ,
तुझी  पे  आजमाएगा  ,
कोशिश  ये  भी  हो  सकती  है ,
तेरी  मर्ज़ी  के  अंग  तुझे  मिल  जाएँ ,
ऐश्वर्य  की  आँखें ,  सुष्मिता  का  बदन ,
रेखा  की  नाक ,  और  क्या  क्या  न  ,
गिना  दूं  मेरे  यार ,
फिर  ये  प्यार  ,  धरा का  धरा ,  रह  जाएगा ,
तेरी  मर्ज़ी  का  मालिक ,
तुझे  मिल  जाएगा  ,
मन  तो  मैं  अपने  दुश्मन  को  दूंगा ,
और  ऐसे  ऐसे  कारनामें  उससे  करवाऊंगा ,
की तगड़े  तगड़े  पहलवानों  से  पिटवाऊंगा ,
भला  हो  वैज्ञानिकों का  ,
मर  के  भी  मैं  चालीस  का ,
काम  चलाऊंगा ,
कृपया  समय  न  गवाएं ,
आज  ही  मेरे  अंग  बुक  करवाएं ,
जिस  जिस  ने  जो  जो  बदले ,
जिस  जिस  से  लेने  हों ,
उसी  के  हिसाब  से  मेरे  अंग  चुन  लें ,
जो  काम  भगवान्  पर   छोड़ा  था ,  मुझसे लें ,
मुझ  पर  भी  कृपा  होगी ,
आप  पर  भी  कृपा  होगी !!



कल  को  चलेंगे ,  युग  के  रचयिता ,
संग  ये  प्यारी  , होगी  चिरयिया    ,
तेरी  मेरी  भूलों  को  ,  मथती  ,
रंग  में  होगी  , तेरी  सोन चिरयिया !!
बस  मेरी  नज़र  से  देखे  कोई ,
बयाँ  के  काबिल , न  तुम  हो  यार  ,
न  तुमसे  मुझको , चाहत  कोई ,
न  वक्त  वो  पल  दिखाए  यार  !!
तेरी  आँखों  से  झर  रहे  सपने  ,
मेरी  आँखें  सहेज  लें  शायद  ,
मुझे  देखना  है  जिंदगी  में ,
कल ,सांझे  हो  सकें  ये  शायद !!
बैठ  कहीं  झुरमुट  के  नीचे ,
सांस  तू  चैन  के  ले  दो  चार ,
कभी दो  पल , खुद से  भी मिल ,
ख़त्म न  होंगे कभी , ये कारोबार !!

Thursday, 11 April 2013


पहचाने  जायेंगे ,  जब  भी  मिलेंगे ,
जो  भी  गुज़रे  हैं ,  वक्त  के  धारों  से ,
या  तो  उनपे  मोहर होगी ,  या  वक्त  पे होगी ,
पहचाने जायेंगे , इक  दूजे के  निशानों से !!

झूठ  था  सब , बचपना था ,
कोयल  जो  कूकी  थी ,
बौराए  नहीं  थे  आम ,
खेल  था  इक ,
गुड्डा गुड्डी  का  ,
मेल  था  इक ,
घर आये तो  ,
सो  गये ,
राधा  और   श्याम !!

दरवाजे  की  साँकल  अब  बजती  नहीं ,
जो  होता है  कुछ , पिछवाड़े  से  होता  है !
दिल  भी  धड़केगा  कल , छुपके  धड़केगा ,
इशारा भी  होता  है ,  तो मिसकाल से होता  है !!
शॉर्ट  सर्कट  अब  हो  गये  हम ,
ज़मीं  से  आसमाँ  ,  अब  हो  गये  हम ,
बिना  आठवीं  दस  करें  ,
बिना  पढ़े  डिग्री  करें  ,
जेल  (  अपराध  कर के  )  जाकर  नेता  बनें ,
सेवा  की  अब  क्या  कहें  ?
दो  रूपए  की  औषधि  ,
हजार में  मिल  जायेगी  ,
जो  बीमारी  न  भी  हो ,
टेस्टों  में  निकल  जायेगी ,
इंजीनीयर ,  ऐसे  पुल  बनाएं ,
दो  दिन में  जो , ओझल  हो  जाएँ ,
सालों  साल  चलें मुकद्द्में ,
अपराधी ,  दो  दिन  में , घर धाये ,
गुरु  जी  की  क्या कहें बस ?
अखबार रोज़ , कहानी  सुनाये ,
विकास  का  ऐसा  रंग  है  छाया ,
देख  सकते  नहीं ,  स्वयं  की  प्रतिच्छाया ,
ऐसे  अजूबे  हो  गये  हम ,
शॉर्ट  सर्कट ,  अब  हो  गये  हम !!
उजड़े  शहर  में  क्यों  जाएँ ,  अब  बार बार ,
दुखता  है वो  भी , अब  मेरे  आने  से , यार  !
सोया  है  यादों  को  वो , सिरहाने लिए लिए ,
टूटे  अब  नींदें , उसकी  , क्यों , बार  बार  !
याद  सांझी  है ,  युग , कितने ? बिताए  हमनें ,
वो  भी  तरसता  है  , उस  रौनक  को , रे  यार !
दुखता  है ,  वो  भी  , और  मैं  भी , हर  शाम ,
बिछुड़े  हम  दोनों  हैं ,  देश हित  को  मेरे  यार !!

बिलासपुर  ,  हिमाचल प्रदेश ,  भाखड़ा बाँध ,  के  कारण ,
उजड़ा  था  !  आज  भी  विस्थापन  का  दर्द  लिए ,  यहाँ  के ,
विस्थापित  लोग , सन  1 9 5 9 से  अब तक ,  उस  समय से
मिली  समस्याओं से  जूझ  रहे  हैं ! उसी  दर्द  को  इन  पंक्तियों
के  माध्यम से  व्यक्त करने  का  एक  प्रयास !!



झंझट से  कहाँ उबरेंगे , हम लोग दीवाने हैं ,
बिन पेंदे के  लोटे हैं , बिन दीवारों के चौखाने हैं !
समझाए  कोई  कितना भी , भला  क्या ,  बुरा क्या ?
स्वार्थ के  दिखते  ही , हम बनते फिर सयाने हैं !
इतिहास  ने  समझाया ,  हम क्यों हुए थे गुलाम ,
वही कारण ,  दोहराने को , दुनियाँ को बुलाये हैं !
वही भ्रष्टाचार का  व्यापार , वही दुश्मनों को न्योते ,
वही घर के  विभीषण , दुनियाँ भर  में दौड़ाये हैं !
देश  मेरा एक , सोच सबकी नेक , फिर क्यों ,
हर पिछ्वाड़े , देशद्रोही हम छुपाये और पाले हैं !
झंझट से  कहाँ उबरेंगे , हम लोग  दीवानें हैं ,
बिन  पेंदे के लोटे  हैं , बिन  दीवारों के चौखाने  हैं !!
यार , जुल्म की  हुई , फिर  इन्त्तिहा आज ,
याद  आया तेरा प्यार से , ज़ख्मों पे फिरा हाथ !
उस हाथ को  ढूंढो तो , मिलना मुश्किल ,
आज  शामिल कहाँ , यार में , पहले से जज़्बात !

संवाद बदल जाते  तो ,  जुबाँ , दोबारा घुमा देता ,
पता  क्या था , जुबाँ  से निकलते ही  , शब्द , शिला होते  हैं !!

Wednesday, 10 April 2013

ज़मीं पे  चलते  हुए जब  पाँव थकें मेरे ,
रुख मेरा , तेरे घर का  हो , इतनी मेहर करना !!
यहाँ कद के  मुताबिक़ ,
मिलता है  सब कुछ ,
और  ये  कद ,
आसमान से  नहीं ,
पाँव छूने से बढ़ता है  आजकल !
इक  बार  अगर ,
ये  कद बढ़ जाए ,
तो जुबां पे  सरस्वती ,
और इशारे पे लक्ष्मी ,
विराजती है  आजकल !
फिर तुम  भी किसीका ,
कद  बढ़ा सकते  हो ,
मालिश  करवा  सकते  हो ,
पाँव दबवा सकते  हो ,
पूजा करवा सकते  हो  आजकल !
पर  ये कद  बढ़ना ,
है  लगातार कदम ,
अपने से  बड़े कद्दावर का ,
कदम है  कहाँ ,ख्याल रखना ,
ज़माना  खराब  है  आजकल !
कभी अपने से  बड़ा ,
बिदक गया ,
और  तुमसे  छोटा ,
झिझक  गया ,
तो कद  बौना  भी  हो  सकता है आजकल !
इसलिए  संभल ,
कद ऊंचा करने  को ,
घर  से  निकल ,
और  जब तक ताड़  न  बनों ,
आत्म सम्मान को घर भूल जाना ,  आजकल !!

 
बाजू से , सरक जाना  हवा  सा , सीटियाँ बजाते  हुए ,
वो  समझे , हम  समझ जायेंगे , सरगोशियाँ उनकी !!
ज़ेहन  में , हो रही  थी खरीद  , सब्ज़ी की  तरकारी  की ,
मंडी में , कहाँ समझ जाते , हम सरगोशियाँ  उनकी !!
हर  सिम्त  होहल्ला था , शोर था , खरीद ओ फरोख्त का ,
ऐसे  में मोहब्बत , खुदा ? वाह रे , सरगोशियाँ उनकी !!
जैसे वो  अहमक  थे सनम , हम  भी निकले उतने ही क़रीब ,
सर  ऊपर से गुज़र गयीं , ये  सरगोशियाँ  उनकी !!

Tuesday, 9 April 2013

एक ही  गमछा ,  एक  ही  कच्छा ,
चले स्नान को  बच्चम ,  बच्चा ,
हो  हो  करते ,  ही  ही  करते ,
सीटी  बजाते , चिढ़ते  चिढाते ,
मीलों  पैदल , खेत खलिहान ,
जंगल  मैदान , बीहड़  सुनसान ,
नदी नाले  पे , चश्में झरने पे ,
जाने किस की किस्मत  जगेगी ,
बच्चों की नीयत फिसलेगी ,
कूद ,  छलांगें , माँ  खैरत मांगें ,
बच के  आ  जाएँ , ये  बच्चे ,
बच्चे कौन ?
जो  धक्के मारें ,
अन तारू को , ताल धकेलें ,
नंगे मुंगे , तैरें खेलें ,
मिट्टी को साबुन सा मल  लें ,
दौड़ें , भागें , झील को  मथ दें ,
डालें , बदल बदल कर , सब ,
एक ही  कच्छा , नये के  अभाव में ,
एक  ही  गमछा ,  पोंछन सबका ,
न कोई भेद ,  न  जात का  लफड़ा ,
ऐसा स्नान ,  न गंगा में भी ,
न तन मैला , न मन मैला ,
एक  ही  गमछा , एक  ही  कच्छा ,
चले  स्नान को , बच्चम बच्चा !!

रे गृहणी ,
कुच्छ  जला है पात्र  में , जो  चूल्हे  चढ़ा ,
रे,  मूर्ख ,
चेता  रही  हूँ , बचा , जो  , समय चढ़ा ,
बचा ,  गर्भ में  स्त्री भ्रूण ,
बचा गली में , बचपन का  खून ,
बचा कार्यालय का  कार्य , बचा ,
सड़क पर  बिकता ,  गुर्दा  बचा ,
बचा  किसी  की अस्मत बचा ,
बचा  देश  की  किस्मत बचा ,
चूल्हे  चढ़ा , दुबारा फिर  बन  जाएगा ,
समय चढ़ा , युग बीते न  बन  पायेगा !!

कांच  का मन ,
रे ,  बचपन ,
मैं  देखूं , सीधे  पार ,
माँ ,  दिखती  केवल  माँ ,
भाई  बंद , अरे , हाँ ,हाँ  ,हाँ ,
सब  है साफ़ ,
न  धब्बा दाग़ ,
यही तो  है , जिसे रखते  सब ,
सहेज  सहेज ,
जिसकी  विवेचना से ,
अब  है परहेज ,
क्योंकि अब हम बच्चे नहीं ,
इंसान तो  हैं ,  पर  सच्चे नहीं !!

 
जब  पूछा ,
एक  बात पूछूं रे  मन ?
हर  पल तू  बदलता क्यों है ?
मन बोला ,
स्थित  कौन  ?
शरीर  तेरा  ?
धरा ?
सूरज , चन्दा ?
समय  का  फंदा ?
दिशाएँ , पवन , शैल या  सागर ?
राजा ? प्रजा ?
ईश्वर इच्छा ?
फिर मैं ही  न  बदलूँ  क्यों ?
मैं बदलूँ ,  तो  तू  बदले  पहाड़ ,
मिट्टी के  शेर  से निकले  दहाड़ ,
युग बदले जब  मन  बदले राम  का ,
सुबह का  जगा ,  दिवस का  थका ,
इंतज़ार  करे शाम का !!


नदिया  सबके अंतस में ,
सूखी ?  बहती ?  इच्छा  है !
आग  का  सूरज  अंतस में ,
जलता ? जलाता ?  इच्छा  है !
आकाश बसा  है अंतस  में ,
खाली ?  भरा ?  इच्छा  है ?
प्राण बसा है  अंतस में ,
मृत ?  या  जीवित ? इच्छा है !
गंध का साम्राज्य अंतस में ,
सुगंध ? दुर्गन्ध ? इच्छा  है !
इच्छा  है स्वयं की  अलग  अलग ,
मानव  को  करती ,  विलग विलग ,
मैंने  देखा है ,  गरीब  का  उत्थान ,
मैंने  देखा  है ,  अमीर , शमशान ,
निर्बुद्ध  को  देखा बुद्ध  बने ,
बौद्धों को  देखा , निर्बुद्ध बने ,
ये जो ,  मेरी  मूरत है ,
मैं हूँ इसका स्वयं भगवान् ,
फिर भी  अगर , न इच्छावत हो ,
तो  इच्छा  तेरी  मेरे  राम !!

 

Monday, 8 April 2013

हल  न कर  सका हल कोई ,
समस्या किसान की ,
जोतते जोतते , पीढ़ियाँ निकली ,
उम्मीद नहीं  समाधान  की !
पढ़  भी लिया ,  गुण  भी  लिया ,
सबक लिया  इतिहास से ,
बीज  लिया  उन्नत  उन्नत ,
क़र्ज़ लिया  सरकार  से !
पर  आज  भी सर  पर भगवान् खड़ा ,
बारिश  मर्ज़ी से  देत बड़ा ,
खेतों में पशु  आवारा बड़े ,
आज  भी  सर  पर सूखा  घड़ा !
बची  हालात से  जो कच्ची फसल ,
बनियाँ ,  दलाल मुंह  बाए  खड़ा ,
हिम्मत  टूटी  बीच  बाज़ार ,
बैंक  ब्याज को  लेने  अड़ा !
कोई  हल किसान को दिखा  न  जब ,
फंदा  गले  में  डाला  तब ,
अब  सब  शांत , न  समस्या , न कोई  हल ,
न  शून्य  काल  में  कोई  हलचल !
हाँ  ,  कभी  कभार ,  किसी  अखबार ,
छप  जाता  है कोई  समाचार ,
और मैं  भी  संतुष्ट  हो  जाता  हूँ ,
चलो  श्राद्ध ही  हो  जाता  है  कभी  कभार !!




  
जीवन  पथिक चल आगे ,
ठोकर  लगे  कोई  बात  नहीं ,
गिरे पड़े ,  कोई  बात नहीं ,
मन  ठेस लगे  कोई बात  नहीं ,
तेरे अंतर  में ,  है  बैठा वो ही ,
जिसके  हाथों में दुआ, दवा ,
जिसके  कहने  से  बहे हवा ,
प्राण ,  अपान जिसके  कहने  में ,
जिसकी  करवट है , आब ओ हवा ,
तड़ित वही , वही बादल ,  चाँद ,
वहीँ से  निकली , सुबह  और सांझ ,
कुछ तो  रख विश्वास  अरे ,
अपनी  आशा पे   उतर खरे ,
ये  जीवन  बाधा ,   तेरी  परीक्षा ,
हर  पग उत्तीरण तू  होगा अरे ,
जीवन पथिक ,  चल  आगे ,
तेरे निशानों पर   चलने को ,
कितने तेरे  पीछे खड़े !!



कितने  ही  उपद्रव  हुए हैं  धरा पर ,
पर  क्षमा किये  जाती  तू  माँ अभी ,
और  हम  हैं  कि , परीक्षा लिए  जा  रहे ,
सहेगी तू  कब  तक , पीड़ा , दिए  जा  रहे ,
मालूम है ,  है  दूजी , कोई ,  माँ न अभी  !!

जीवन स्पंदन ,
हुआ , कांख  में ,
जैसे  कण कोई ,
गिरा आँख में ,
अनजाने में ,
छुआ हाथ नें ,
महसूस हुआ ,
कुछ  प्राण है उसमें ,
न देखा ,
न , भाला उसको ,
पल  में डर से ,
मसल  दिया ,
क्षण में जीवन ,
रीत गया , पल  बीत गया !
यही  भाव  है  ,
बुद्धि विनाशक ,
ग्रस्त  सभी ,
इससे जीवित जन ,
पशु , शावक ,
हिंसा का  यही ,
कारण एक ,
जीत  न  ले कोई ,
डर  यही एक ,
नष्ट करे यह ,
बुद्धि  विवेक !!




मेरा मिजाज़ मैं नहीं  जानता ,  तुम  क्या जानोगे ?
बीता  इतिहास ,आधा  सच आधा झूठ ,
आज का  पल बीत  रहा , आधा व्यक्त  ,  आधा मौन ,
गर्भ में क्या ,  भविष्य के  है , क्या जानू  मैं ?
खुदा  नहीं  जानता , स्वभाव है  जिसका , तुम क्या  जानोगे ?

Saturday, 6 April 2013

यार तू मुझे  अच्छी सी किस्मत देदे पहले ,
समझ  लूँगा फिर ,  खुदा क्या  है ,
मेरा  जीवन  निकल  अच्छे   से  जाए ,
कौन  मेरा  है  खुदा , मुद्दा  क्या है ?
मैं  जानता  नहीं था दम घुटना है  क्या ,
पकड़ा यार ने  गला ,
प्यार अनजान रास्ते  चला ,
ऑफिसर की बेमतलब  झाड़ ,
नेता  की  , अनुचित लताड़ ,
मातहत का  रौभ ,
अर्धांग का क्रोध ,
बच्चों  के  आगे ,  विवशता ,
बच्चों के  कारण विवशता ,
स्वयं के  आगे विवशता ,
स्वयं के  कारण विवशता ,
असूलों से  टकराव ,
असूलों के कारण बिखराओ ,
सब  समझ आ  गया ,  ये जीवन है  क्या ,
मैं जानता हूँ  अब , दम  घुटना है  क्या ?


तू सुने तो आवाज़  लगाऊं मैं ,
तू  रुके तो घर आऊँ मैं ,
विवेक हूँ तेरा , खड़ा द्वार तेरे ,
चाहे जगना ?  जगाऊं मैं ?
ये प्रश्न ज़रूरी  है ,
मेरी मजबूरी  है ,
मैं कलयुग का  हूँ  भिखारी ,
लोग मेरी सूरत देखते ही ,
द्वार बंद कर लेते हैं ,
मुख दूसरी ओर कर  लेते हैं ,
लक्ष्मी भी मुझे छोड़ ,
मेरे हन्ता संग खड़ी है ,
कभी लगता  है ,
वह विष्णु से बड़ी है ,
पर भिक्षु का कर्म है ,
हांक लगाना , अलख जगाना ,
चाहे  जगना ? जगाऊं मैं ?
तू सुने तो आवाज़ लगाऊं मैं ?
न जानता  रोमियो जूलियट , न  जानता हीर  और रांझा ,
पर  जानता  हूँ प्यार का बंधन , जिसने जगत  को बाँधा !!
जानता  तुम  हो  समंदर , तो  खोलता  न कश्तियाँ ज़ुबां की ,
यूँ  ही डूब जाता  मैं , मौन , मौन , मौन !!

Thursday, 4 April 2013

कौन  जाने  तुम  फिर  परिचित  निकलो ,
कौन  जाने  तुम  फिर  गुम   हो  जाओ ,
कौन  जाने  तुम संग  चलोगे ,
कौन  जाने तुम बदला  लोगे ,
कौन जाने ये  सब नाटक  हो ,
कौन  जाने  बंद सब  फाटक हों ,
अब  इस  कौन से  बाहर निकलो ,
स्वछन्द बिताओ ,  जीवन निकलो ,
प्रश्नों  में  मत  घेरो  जीवन ,
उत्तर ,  सबके ,  मिलेंगे निकलो ,
ये  जो अनिश्चितता है पग  पग ,
यही तो जीवन आनंद  है निकलो ,
अंधियारे  उजियारों  में बदलेंगे ,
तुम इक पग , घर  से  बाहर  निकलो !!
मेरा कुछ  था  ही  नहीं  , तो कुछ  खोया कैसा ?
कुछ  पास  होगा  नहीं  , तो  फिर पाया  कैसा  ?
पर  ज़िंदा  हूँ  जब  तक , एहसास  है  मुझ में ,
तो  जो  सांझा है  सबका ,  कुछ  कर  जाएँ  ऐसा  ?


राम  ही  जाने क्यों आता खुदा  याद ,  जब बरबादियाँ  मुंह चिढ़ाती  हैं ?
सब  भेद  मिट  जाते  हैं , जब माथे  पर लिखी  किस्मत  , गर्दन  पे  आती  हैं  !!
 
बिकता है आजकल सब  द्विअर्थी ,
तो   क्यों न  हो  जाएँ  हम  भी ,
बाहर  निस्स्वार्थी ,  अन्दर  स्वार्थी ?
अब  ख़बरों में  वो  आता  है ,  जुल्म  जो  कर  जाता  है ,
कुछ  क़त्ल  कुछ  रेप , कुछ  मामलात  रैड टेप ,
कुछ भीगते  हुए  बारिश में , कुछ हालाते  खारिश  में ,
कुछ  सेंकते  धूप ,  कुछ  गिरते  हैं  जो  अंध कूप ,
कुछ प्रचार  किसी  का , कुछ व्यापार  किसी  का ,
खेल  खबरें भी  वही , जो  बिक जाती  हैं ,
नाज़  नखरे  भी  वही  , आँखें  जिनसे सिंक  जाती  हैं ,
कुछ  तो  बदलो  मेरे  यार ,
भार  तुम  भी  उठाओ यार ,
उनको  भी  दो  कुछ जगह उधार,
लिखो उनपर  भी कुछ , जो  बेड़ा लगाएं  पार !!

Wednesday, 3 April 2013

रंग   महल अब   भी  हैं , अब  भी  हैं  ख़ास  ओ आम ,
कौन  कहता  है  बीता  ज़माना अभी , अब  भी खनकते  जाम ,
सूरतें  तब  भी  बदलती  थीं , सूरतें  अब  भी  बदलती  हैं ,
हर सदी  में ,  बना  लेते  हैं ,  चापलूस  अपना  काम !
अब  भी खाता  है दिमाग  की  कमाई  कोई ,
कोई  लाठी  पिस्तौल  की  धमक  खाता  है ,
कोई खाता  है व्यवहार ,  व्यापार  से , और जी  हजूरी  से  कोई ,
जाति   कहाँ  बदली ? बदले  बस  नाम !!
हल्की सी  हवा  आने  दो ,
घुटन  है  बहुत ,
साँस की  लय , संभल जाने  दो ,
मैं  भी  पी  लूं  कुछ कड़वी  दवा  ,
ऊपर की  कमाई के  गुर , लेने  दो ,
अब न  चलन है ,  सज़ा  का  कुछ भी ,
दो चार गुनाह कर  लेने  दो !
मेरे  बच्चों को  भी देनी है डोनेशन ,
चुनना  है अच्छा  सा  प्रोफेशन ,
मेरी सामर्थ्य  को  भी कुछ पलने  दो ,
कुछ आगे  बढ़ने दो !
डॉक्टर भी कुछ  हैं  परेशान ,
मेरे  खून में  कुछ है  कमियाँ ,
इन विकास की  विधियों से मुझको ,
रिएक्शन होता  है , मेहरबान ,
इसलिए ,
हलकी  सी  हवा  आने  दो ,
भ्रष्ट  देश  का  भ्रष्ट नागरिक ,
मुझको  भी  बन  जाने  दो ,
सांस ज़रा संभल जाने  दो !!


मासूम सी  हरकत  मेरी , और  छेड़  कर वो गये ,
लगता  है उनको बार बार , किसीका तड़पना खुशगवार !!
आ चलें ,
कुछ कदम ,
कुछ भला ,  कर जाएँ हम ,
पहचानें कोई ,  न इसलिए ,
पर है ये धर्म इसलिए !
ये जिंदगी जो चल रही ,
है निरंतर धार ये ,
पर केवल तब तलक ,
जब है न बस ,  निस्सार ये !!
अजनबी थे तब तक , मिले थे न राहों में ,
अब राह चलते मौन ? जुल्म नहीं तो क्या ?

गुज़रे  कोई  गली  से , मंज़ूर  है  नहीं ,
मेरा रहना उस  जगह , जहां मैं भी मैं  नहीं !!


मुद्दा नहीं है  कोई ,  दोस्त बना  नहीं ,
दुश्मन बना  वो  कैसे , परेशानी है  बस  यही !!
बहुत  रंग  देख  लिए तेरे इस  जहां में ,
राम रंग  देखें अब , समय आ  गया है ,
बेरंग रंग हो  गये , दुनियाँ के मेरे  सामने ,
डूबें तेरे रंग  में , अब  समय आ गया है !!