Friday, 23 December 2011

शाम  ढले  कड़ाके  की  ठण्ड से अकड़े  माँ  से  बिछुड़े दो कुत्ते  के  पिल्ले ,
अँधेरा  गहराते  गहराते ,  कूँ  कूँ करते  इक  दूजे  पे  गिरते  पड़ते मिल बैठे ,
सोच  अकेले  मर  जायेंगे ,  इक  दूजे की  पीठ  पे  मुंह रख सड़क  में  सो  जाते  हैं ,
मैं दोनों  के  प्यार  से ,  दोनों  के  जिंदा  रहने के  लिए  लगाव  से  अभिभूत होता  हूँ ,
मुझ में  अचानक  मातृत्व   जग  उठता  है , बोरी  पीठ  पे  उढ़ा  देता  हूँ  ,
अब  ये  रोज़ का  उत्सव  बन  जाता  है ,  मैं  माँ  बन आँचल  से ढक  देता हूँ ,
धीरे  धीरे  अब  उन्हें  माँ  की  ज़रूरत नहीं  रहती  है ,और  शरारत  अब बढ़ जाती  है ,
अब  रोटी  का  झगड़ा ,  खेल  कूद , गली  के  और  कुत्तों  से  जान  पहचान हो जाती है ,
दोनों  में प्यार  इतना  हो  जाता  है  कि ,  कभी अकेले  दिखते  ही  नहीं  मिलते  ही  नहीं ,
पर  अब  अचानक  मौसम  बदला , रीत  कुरीत हो  गयी ,  जवानी   बैरन  हो  गयी ,
रोज़  का  झगड़ा ,  रोज़  का  गुर्राना , दांत  निपोरना ,  और  लहूलुहान हो  जाना , आम  हो  गया ,
आखिर  एक  दिन   महाभारत  ने  एक  की  गर्दन का  नाप  लिया ,  दांत   गड़ा  घायल किया ,
स्वार्थों  में  बचपन  का  प्यार   गया  दुलार  गया  , पहचान  गयी  सम्मान गया ,
और  इंसान  के  सारे  गुण  उनमें  समा  गए ,  भाईचारा समाप्त हो  गया , और  मेरा  मातृत्व फल  गया !!

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