Wednesday, 14 December 2011




मुझे   बॉस   ने   वफाओं   के   बदले   तन्हाई   बख्श   दी   , 
ख्याल   उसका   ये   था   मैं   टूट   जाऊंगा  ,
और   मैंने   नर्म   हाथों   से   तन्हाई   को   बटोरा  ,
दस   किताबें   पढ़ीं   ,  अपने   कर्म   क्षेत्र   की   , 
कुछ   अपने   विचारों   को   सुधारा  कुरेदा   , 
और   लेखनी   को   संभाला   जतन  से  ,प्रयत्न   से  ,
मुझे   ईश   ने   , नया   कर्म   क्षेत्र   दिखाया  ,
कुछ   हिचकिचाहट   हुई   , युद्धक्षेत्र    सा   दिखा   ,
पर  मैंने   गीता   को   समझा   ,  युद्ध   को   डट   गया   ,
मेरा   तो   क्षेत्र   आयुर्वेद   था   ,  या   फिर   चिकित्सा   क्षेत्र   था   ,
या   चित्रकारी   ,  या   लाईब्रेरी   , या   खेल   का   मैदान   था  ,
ये   कविता   ये   लेखन   ,  तो   सोचा   भी   नहीं   था  ,
पर   तन्हाई   जो   इतने   प्यार   से   मुझे   मिली   थी   ,
क्या   उसको   निराशा   का   संताप   देता   ?
 क्या   आत्म   को   मैं   अपने   क्रोध   से   जलाता   ?
मैंने   तो   कभी   युद्ध   चाहा  नहीं   था   , 
पर   भागना   भी   मैंने   सीखा   नहीं   था   , 
परिस्थितियों   को   मैंने   गले   से   लगाया  , 
और   जो   बन   पड़ा   उसमें   जुट   गया   मैं  ,
अब   जो   भी   हूँ   उस  प्रभू   की   दया   से   ,  आपके   सामने   हूँ  ,
ये   बस   तीन   महीनों   का   मात्र   अवतार   है  , 
हे   मेरे   पाठको  व  साथियो  ,  मुझे   वरदान   दो   , 
मैं   जो   भी   करूँ   पूरे   दिल   से   करूँ  , 
और   जो   भी   प्रभु   ने   गुण   दिया  कृपाकर , 
उसका   ऋण   मैं  उसीकी   कृपा  से   चुका   दूं   !!



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