समानांतर चलने दो मुझे पटरी की तरह , जानता हूँ मिल नहीं सकते हम कभी !
पर साथ चलें हम तब भी , कर सकते जग का भला , खुल सकते हैं रास्ते सभी !!
संभावनाओं को बनने दो , दीवारों को गिरने दो , भेद सदा बाधक बने , न ऐसा कभी !
निरंतर पहुँचाओ , योजनाओं को मंजिल तक , रेल की मानिंद , अहं पिघलने दो अभी !!
चलो अंतर में झांकें जरा , बहुत दिन हुए , देखा नहीं , जमीं धूल कहाँ कहाँ !
दीवाली पर , कुछ झाड़ बुहार करें , रंग लायें नए , कूची से फेरें यहाँ वहां !!
अंतर में है भारत के , जमा हुआ कुछ , झूठ फरेब , धोखा धड़ी , औ सिगरेट का धुवां !
कुछ परेशानी बिना बात की , इर्षा - द्वेष , भ्रष्टाचार के कुछ छींटे , रिश्वत का सामां !!
पर सब कुछ तो अभी , नहीं खत्म हुआ , सुलझें हम सभी , क्या बूढ़े , क्या जवां !
चलो लायें दर्पण से , मन के , कुछ रेगमाल , कुछ पट्टी , करें नया सब यहाँ वहां !!
आओ बांटे खार समुंदर , आधा तेरा ,आधा मेरा !
आओ बाँटें नदी का धारा , आधा तेरा , आधा मेरा !
धरती , आसमान आधे आधे ,आधा करलें , तारा , तारा !
आधा करलें , मन का आँगन और सांझा करलें जीवन सारा !!
मेरी अखियाँ गयी कुछ पलट रे बन्धु , ज्ञान ध्यान सब बिसरा !
मन में छाया , माया का रंग , सब हासिल था जो , अब बिखरा !!
मोहे समझ न आये , किस कारण से , राम , श्याम , रब , बिगड़ा !
ला दे रे , रसिया , बंसिया , वैद , गुनी , कोई ,अखियों से सब बिसरा !!
मुझे तलाशना चाहते हैं , मेरे करम , और मैं हूँ के नज़र आता नहीं !
छुपा बैठा हूँ डर के , मन के अंधेरों में , रात की स्याही लपेटे हुए !!
रौशनी आती है कम , और जंगल हैं कुंठाओं के घनेरे ,हिंस्र पशुओं से घिरे !
तोड़ना चाहता हूँ , डर के घेरे , कुंठाओं के जंगल , पर कुंद हैं औजार सारे !!
चलो चलता हूँ , करता हूँ इकठ्ठा , ईंधन पश्चाताप का , मन के सवेरे से !
और जलाऊँ होली भूत कर्मों की , बचालूं शेष जीवन प्रहलाद सा , दोबारा से !!
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