Sunday, 16 October 2011

समानांतर   चलने  दो  मुझे  पटरी  की  तरह  ,  जानता  हूँ     मिल  नहीं  सकते  हम   कभी  !
पर  साथ  चलें  हम  तब  भी  ,  कर   सकते   जग  का  भला  ,  खुल  सकते  हैं  रास्ते   सभी  !!
संभावनाओं  को  बनने  दो  ,  दीवारों  को  गिरने  दो  ,  भेद  सदा  बाधक  बने , न  ऐसा  कभी  !
निरंतर  पहुँचाओ ,  योजनाओं  को  मंजिल  तक  , रेल  की  मानिंद  ,  अहं  पिघलने   दो  अभी  !!


चलो अंतर में झांकें जरा , बहुत दिन हुए , देखा नहीं , जमीं धूल कहाँ कहाँ !
दीवाली पर , कुछ झाड़ बुहार करें , रंग लायें नए , कूची से फेरें यहाँ वहां !!
अंतर में है भारत के , जमा हुआ कुछ , झूठ फरेब , धोखा धड़ी , औ सिगरेट का धुवां !
कुछ परेशानी बिना बात की , इर्षा - द्वेष , भ्रष्टाचार के कुछ छींटे , रिश्वत का सामां !!
पर सब कुछ तो अभी , नहीं खत्म हुआ , सुलझें हम सभी , क्या बूढ़े , क्या जवां !
चलो लायें दर्पण से , मन के , कुछ रेगमाल , कुछ पट्टी , करें नया सब यहाँ वहां !!

आओ  बांटे  खार समुंदर  , आधा तेरा  ,आधा  मेरा  !
 आओ  बाँटें  नदी  का  धारा , आधा  तेरा  , आधा  मेरा  !
 धरती  , आसमान  आधे  आधे  ,आधा  करलें , तारा , तारा  !
 आधा  करलें ,  मन  का  आँगन  और  सांझा  करलें  जीवन  सारा  !!

मेरी  अखियाँ  गयी  कुछ   पलट  रे  बन्धु  ,  ज्ञान   ध्यान  सब  बिसरा  !
मन  में  छाया  ,  माया  का  रंग  ,  सब  हासिल  था  जो , अब  बिखरा    !!
मोहे  समझ  न  आये  ,  किस  कारण  से  ,  राम , श्याम , रब , बिगड़ा  ! 
ला  दे  रे  ,  रसिया  , बंसिया  ,  वैद  , गुनी , कोई ,अखियों   से  सब  बिसरा !! 

मुझे    तलाशना   चाहते    हैं  ,   मेरे   करम  , और  मैं  हूँ     के  नज़र   आता  नहीं  !
छुपा   बैठा   हूँ   डर   के ,   मन   के    अंधेरों   में  ,  रात   की   स्याही  लपेटे  हुए  !!
रौशनी   आती   है   कम  ,  और  जंगल  हैं  कुंठाओं  के  घनेरे  ,हिंस्र  पशुओं  से  घिरे !
तोड़ना  चाहता  हूँ  ,  डर  के  घेरे  ,  कुंठाओं  के  जंगल  ,  पर  कुंद  हैं  औजार   सारे !!
चलो      चलता   हूँ  ,  करता   हूँ   इकठ्ठा  ,  ईंधन  पश्चाताप   का , मन  के  सवेरे   से  !
और   जलाऊँ   होली   भूत  कर्मों  की  ,  बचालूं   शेष  जीवन  प्रहलाद  सा , दोबारा  से  !!
 

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