उफ़ , ये ललाट पे भृकुटी , और आँखों की लालिमा तेरी ,
जलाता क्यों है अब दिनकर , हम तो छांह भी चाहते हैं , तो बस तेरी !
क्यों जताता है तू , के तू पावर में है ,
यहाँ तो मेंढक भी डराता है तो , देते हैं उसे भी उपमा , तेरी !!
जलाता क्यों है अब दिनकर , हम तो छांह भी चाहते हैं , तो बस तेरी !
क्यों जताता है तू , के तू पावर में है ,
यहाँ तो मेंढक भी डराता है तो , देते हैं उसे भी उपमा , तेरी !!
No comments:
Post a Comment