Friday, 20 April 2012
"चलो चलके झील में हंसों से बतियाएं ,
चुने मोती कितने , कितना अलग किया पानी ,
कितना दूध मिला था , मानसरोवर में ,
जो नदियों में बहना भूल गया है अब ,
कौन थी गुजरिया , क्या नाम उसका था ,
और नदी का दूध बन गया पानी ,
"इस जहाँ में कुछ अकेले , जग से खेले ,
अब अकेले ही झुण्ड का अहसास देते हैं ,
बहुत बोल लिए अब , कुछ मौन हो जाए ,
"खली हाथ चले आओ , किसने कहा ख़ाली है जहाँ ,
"बहुत बार किया मैंने कुछ ऐसा , अपनों को पराया कर आया ,
"सगरे जगत में तू तारणहार ,
जगत भी तू और नाव भी तू ,
सवार भी तू और पतवार भी तू ,
फिर क्यों झंझट में मन है ,
"जड़ से जुडूं और उडूं आकाश ,
ऐसे हैं एक सहारे ,
"सिर्फ मन है मेरे साथ , जो दिल को मना लेता है ,
"दिल से खेलोगे और दाद मिलेगी ,
"मैं नहीं कहता मुझे शायर मान ,
दिल का मारा तो कह ही सकते हो ,
तू तारीफ़ में न बोल , कुछ मीठे बोल ,
"मुझे संदेशे कोई नहीं आते , और मैं उब भी गया हूँ मेलों से ,
"प्याला मेरा भर दे कोई , अंगूरी अंगूरी ,
तन्हाई के आलम में , शाम बने सिन्दूरी सिन्दूरी ,
अपने कहाँ मिलते हैं ज़माने में अब ,
"आओ चलो करलें तौबा , न तुम बोलो , न मैं बोलूँ ,
"न कोई चाहने वाला फिर भी , इक आवाज़ लगाता हूँ , आये कोई !
"घूँट दर घूँट , पीता ही गया कड़वे घूँट ,
"सूरज , पवन , आकाश , जल , पृथ्वी के बिना जीवन कहाँ ?
पर वो अपने कर्तव्यों का रोना कभी नहीं रोते ,
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